Pratidin Ek Kavita

एक तिनका | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

 मैं घमण्डों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुण्डेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।


What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

एक तिनका | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

मैं घमण्डों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुण्डेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।