कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
अभुवाता समाज | रूपम मिश्र
वे शीशे-बासे से नहीं हरी कनई मिट्टी से बनी थीं
जिसमें इतनी नमी थी कि एक सत्ता की चाक पर मनचाहा ढाल दिया जाता
नाचती हुई एक स्त्री को अचानक कुछ याद आ जाता है
सहम कर खड़ी हो जाती है माथे के पल््लू को और खींच कर
दर्द को दबा कर एक भरभराई-सी हँसी हँसती है
हमार मालिक बहुत रिसिकट हैं
हमरा नाचना उनका नाहीं नीक लगता
साथ पुराती दूसरी स्त्री भी चुप हो जाती
ये वही आखी-पाखी लड़कियाँ थीं जिनके दुख धरती की तरह थे
उसी की तरह नाच कर कुछ पल के लिए खुद को भूल जाना चाहती थीं
हालाँकि इनके नाचने से बहार नहीं लौटती
और बज़ झूरे में बादल भी घुमड़ कर नहीं बरसे कभी
ये रोतीं तो पवित्र ओस से धरती भीग जाती
छनछना कर पैर पटकरतीं तो अड़्हुल कनेर चटक कर खिल जाते
पर अब ये डरती हिरनियाँ हैं
जो कुलाँचे के लिए तरसती हैं
ये क्यों डरती हैं, बेहद डरती हैं किसी अपराध से नहीं
कभी किसी ब्याह, छठ बरही में डर भूलकर ये नाच उठती हैं
बम्बई में बैठा पति खूब गाली देता है डे
हरजाई पतुरिया की बेटी है बिना नाचे नहीं रहा जाता
फिर भी मोरनियाँ थीं जब भी कोई ननद जेठानी हुलस कर कहती
फलाने बहू बाजे पर तोहार नाच देखे बहुत दिन हो गया
फलाने बहू खुद को रोक नहीं पातीं हा
झमक कर नाच उठतीं
गाँव का कोई मनचला देवर फलाने को फोन करता
भौजी बाजे पर गजब नाचती हैं हंस कर कहता
फलाने अगिया-बैताल हो जाते
लौटने पर नचनिया की बेटी को खूब कूटने का वादा करते
'फलानेबहू की बूढ़ी माँ के साथ उनके पिता की जगह
खुद के सोने का फरमान जारी करते
साथ में सात साल की बिटिया को संस्कार देने का आदेश देते
एक अभुआता समाज कायनात की सारी बुलबुलों की गर्दन मरोड़ रहा है...!