Pratidin Ek Kavita

माँ की ज़िन्दगी | सुमन केशरी

चाँद को निहारती
कहा करती थी माँ
वे भी क्या दिन थे
जब चाँदनी के उजास में
जाने तो कितनी बार सीए थे मैंने
तुम्हारे पिताजी का कुर्ते
काढ़े थे रूमाल
अपनी सास-जिठानी की नज़रें बचा के
अपने गालों की लाली छिपाती
वे झट हाज़िर कर देती
सूई-धागा
और धागा पिरोने की
बाज़ी लगाती
हरदम हमारी जीत की कामना करती माँ
ऐसे पलों में खुद बच्ची बन जाती

बिटिया यह नानी की कहानी नहीं
इसी शहर की
यह तेरी माँ की ज़िंदगानी  है...

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

माँ की ज़िन्दगी | सुमन केशरी

चाँद को निहारती
कहा करती थी माँ
वे भी क्या दिन थे
जब चाँदनी के उजास में
जाने तो कितनी बार सीए थे मैंने
तुम्हारे पिताजी का कुर्ते
काढ़े थे रूमाल
अपनी सास-जिठानी की नज़रें बचा के
अपने गालों की लाली छिपाती
वे झट हाज़िर कर देती
सूई-धागा
और धागा पिरोने की
बाज़ी लगाती
हरदम हमारी जीत की कामना करती माँ
ऐसे पलों में खुद बच्ची बन जाती

बिटिया यह नानी की कहानी नहीं
इसी शहर की
यह तेरी माँ की ज़िंदगानी है...