Pratidin Ek Kavita

मेरे भीतर की कोयल | सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

मेरे भीतर कहीं
एक कोयल पागल हो गई है।
सुबह, दुपहर, शाम, रात
बस कूदती ही रहती है
हर क्षण
किन्हीं पत्तियों में छिपी
थकती नहीं।
मैं क्या करूँ?
उसकी यह कुहू-कुहू
सुनते-सुनते मैं घबरा गया हूँ।
कहाँ से लाऊँ
एक घनी फलों से लदी अमराई?
कुछ बूढ़े पेड़
पत्तियाँ सँभाले खड़े हैं
यही क्या कम है!
मैं जानता हूँ
वह अकेली है
और भूखी
अपनी ही कूक की
प्रतिध्वनि के सहारे
वह जिये जा रही है
एक आस में—
अभी कोई आएगा
उसके साथ मिलकर गाएगा
उसकी चोंच से चोंच रगड़ेगा
पंख सहलाएगा
यह बूढ़े पेड़ फलों से लद जाएँगे।
कुहू-कुहू
उसकी आवाज़—
वह नहीं जानती
मैं जानता हूँ
अब दिन-पर-दिन कमज़ोर होती जा रही है।
कुछ दिनों बाद
इतनी शिथिल हो जाएगी

कि प्रतिध्वनियाँ बनाने की
उसकी सामर्थ्य चुक जाएगी।
वह नहीं रहेगी।
मेरे भीतर की यह पागल कोयल
तब मुझे पागल कर जाएगी।
मैं बूढ़े पेड़ों की छाँह नापता रहूँगा
और पत्तियाँ गिनता रहूँगा
ख़ामोश।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

मेरे भीतर की कोयल | सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

मेरे भीतर कहीं
एक कोयल पागल हो गई है।
सुबह, दुपहर, शाम, रात
बस कूदती ही रहती है
हर क्षण
किन्हीं पत्तियों में छिपी
थकती नहीं।
मैं क्या करूँ?
उसकी यह कुहू-कुहू
सुनते-सुनते मैं घबरा गया हूँ।
कहाँ से लाऊँ
एक घनी फलों से लदी अमराई?
कुछ बूढ़े पेड़
पत्तियाँ सँभाले खड़े हैं
यही क्या कम है!
मैं जानता हूँ
वह अकेली है
और भूखी
अपनी ही कूक की
प्रतिध्वनि के सहारे
वह जिये जा रही है
एक आस में—
अभी कोई आएगा
उसके साथ मिलकर गाएगा
उसकी चोंच से चोंच रगड़ेगा
पंख सहलाएगा
यह बूढ़े पेड़ फलों से लद जाएँगे।
कुहू-कुहू
उसकी आवाज़—
वह नहीं जानती
मैं जानता हूँ
अब दिन-पर-दिन कमज़ोर होती जा रही है।
कुछ दिनों बाद
इतनी शिथिल हो जाएगी

कि प्रतिध्वनियाँ बनाने की
उसकी सामर्थ्य चुक जाएगी।
वह नहीं रहेगी।
मेरे भीतर की यह पागल कोयल
तब मुझे पागल कर जाएगी।
मैं बूढ़े पेड़ों की छाँह नापता रहूँगा
और पत्तियाँ गिनता रहूँगा
ख़ामोश।