कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
ईश्वर के बच्चे | आलोक आज़ाद
क्या आपने
ईश्वर के बच्चों को देखा है?
ये अक्सर
सीरिया और अफ्रीका के खुले मैदानों में
धरती से क्षितिज की और
दौड़ लगा रहे होते हैं
ये अपनी माँ की कोख से ही मज़दूर है।
और अपने पिता के पहले स्पर्श से ही युद्धरत है।
ये किसी चमत्कार की तरह
युद्ध में गिराए जा रहे
खाने के थैलों के पास प्रकट हो जाते हैं।
और किसी चमत्कार की तरह ही अट्श्य हो जाते हैं।
ये संसद और देवताओं के
सामूहिक मंथन से निकली हुई संताने हैं।
जो ईश्वर के हवाले कर दी गई हैं।
ईश्वर की संतानों को जब भुख लगती है।
तो ये आस्था से सर उठा कर
ऊपर आकाश में देखते हैं।
और पश्चिम से आए देव-दूर्तों के हाथों मारे जाते हैं
ईश्वर की संताने
उसे बहुत प्रिय हैं।
वो उनकी अस्थियों पर लोकतंत्र के
नए शिल्प रचता है
और उनके लह से जगमगाते बाज़ारों में रंग भरता है
मैं अक्सर
जब पश्चिम की शोख़ चमकती रात को
और उसके उगते सुरज के रंग को देखता हूँ
मुझे उसका रंग इसानी लहू-सा
खालिस लाल दिखाई देता है।