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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
ऋण फूलों-सा | सुनीता जैन
इस काया को
जिस माया ने
जन्म दिया,
वह माँग रही-कि
जैसे उत्सव के बाद
दीवारों पर
हाथों के थापे रह जाते
जैसे पूजा के बाद
चौरे के आसपास
पैरों के छापे रह जाते
जैसे वृक्षों पर
प्रेम संदेशों के बँधे,
बँधे धागे रह जाते,
वैसा ही कुछ
कर जाऊँ
सोच रही,
माया के धीरज का
काया की कथरी का
यह ऋण
फूलों-सा हल्का-
किन शब्दों में
तोल,
चुकाऊँ