Pratidin Ek Kavita

देवी बनने की राह में  | प्रिया जोहरी 'मुक्ति प्रिया'

देवी बनने की राह में
लंबा सफ़र तय किया हमने
कई भूमिकाऐँ बदली
आंसू की बूंदो का स्वाद चखा
खून बहाया
कटा चीरा ख़ुद को
अपमान के साथ
झेली कई यातनाएँ
हमने छोड़ा अपना घर
पुराने खिलौंने
अपनी प्रिय सखी
अपना शहर
हमने छोड़ दिया अपने सपनों को
और छोटी-छोटी आशाओं को
नहीं देखा कभी खुल कर
शहर को
नहीं जान पाए हम
खुद की मर्ज़ी से जीना
कैसा होता है
रात में सड़कों पर चलता हुआ
शहर कैसा दिखता है।
वह जगह कैसी होती है।
जहाँ पर केवल देव जा सकते है
कैसे होते हैं वह
स्थान जहाँ पर अजनबी चलते है।
नहीं पता हमें कैसे दिखती हैं
उसकी ज़मीन और आसमान
हमने नहीं तोड़ी घर की दीवारें
जो हमें रोकती थी
बल्कि बनाए घर
सजाया घर घरौंदा
मिट्टी से लिपा
चूल्हा चौका
पकाएँ खूब पकवान
कर के अपनी
खुशियों को
दरकिनार,
निभाया अपना देवी धर्म
हमने जानना छोड़ दिया
हमें क्या पसंद है।
हम बस चलते गए
और सीखते गए
अच्छी देवी बनने का सबक 
हमने मंदिरों में दिए जलाये
तीज, व्रत और त्यौहार किये
हमने पीपल के पेड़ पर बांधे
मनोकामनाओं की धागे 
नदी से,
पर्वत से,
चांद से,
पेड़ से ,
भगवान से
देव लोक के अमरत्व की
प्राथनाएँ की
हमने वह गीत गए
जो देव लोक को
प्रिय थे
हमने सजाया ख़ुद को
लगाया महावर
अपने पैरों में
पहनी हाथों में चूड़ियाँ
सजाई बिंदी
और कमरबंद
जब तक हम देवों के साथ थे
उसके बाद छोड़ दिए
सारे साजो श्रृंगार
हमने टाल दी लड़ाइयां 
किए बहुत से समझौते
ताकि हमारा देवत्व
हमसे न रूठे
हमने देखा कि
यह सब भी कम पड़ा
खुद को देवी
साबित करने को


What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

देवी बनने की राह में | प्रिया जोहरी 'मुक्ति प्रिया'

देवी बनने की राह में
लंबा सफ़र तय किया हमने
कई भूमिकाऐँ बदली
आंसू की बूंदो का स्वाद चखा
खून बहाया
कटा चीरा ख़ुद को
अपमान के साथ
झेली कई यातनाएँ
हमने छोड़ा अपना घर
पुराने खिलौंने
अपनी प्रिय सखी
अपना शहर
हमने छोड़ दिया अपने सपनों को
और छोटी-छोटी आशाओं को
नहीं देखा कभी खुल कर
शहर को
नहीं जान पाए हम
खुद की मर्ज़ी से जीना
कैसा होता है
रात में सड़कों पर चलता हुआ
शहर कैसा दिखता है।
वह जगह कैसी होती है।
जहाँ पर केवल देव जा सकते है
कैसे होते हैं वह
स्थान जहाँ पर अजनबी चलते है।
नहीं पता हमें कैसे दिखती हैं
उसकी ज़मीन और आसमान
हमने नहीं तोड़ी घर की दीवारें
जो हमें रोकती थी
बल्कि बनाए घर
सजाया घर घरौंदा
मिट्टी से लिपा
चूल्हा चौका
पकाएँ खूब पकवान
कर के अपनी
खुशियों को
दरकिनार,
निभाया अपना देवी धर्म
हमने जानना छोड़ दिया
हमें क्या पसंद है।
हम बस चलते गए
और सीखते गए
अच्छी देवी बनने का सबक
हमने मंदिरों में दिए जलाये
तीज, व्रत और त्यौहार किये
हमने पीपल के पेड़ पर बांधे
मनोकामनाओं की धागे
नदी से,
पर्वत से,
चांद से,
पेड़ से ,
भगवान से
देव लोक के अमरत्व की
प्राथनाएँ की
हमने वह गीत गए
जो देव लोक को
प्रिय थे
हमने सजाया ख़ुद को
लगाया महावर
अपने पैरों में
पहनी हाथों में चूड़ियाँ
सजाई बिंदी
और कमरबंद
जब तक हम देवों के साथ थे
उसके बाद छोड़ दिए
सारे साजो श्रृंगार
हमने टाल दी लड़ाइयां
किए बहुत से समझौते
ताकि हमारा देवत्व
हमसे न रूठे
हमने देखा कि
यह सब भी कम पड़ा
खुद को देवी
साबित करने को