कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
अनुपस्थित-उपस्थित | राजेश जोशी
मैं अक्सर अपनी चाबियाँ खो देता हूँ
छाता मैं कहीं छोड़ आता हूँ
और तर-ब-तर होकर घर लौटता हूँ
अपना चश्मा तो मैं कई बार खो चुका हूँ
पता नहीं किसके हाथ लगी होंगी वे चीजें
किसी न किसी को कभी न कभी तो मिलती ही होंगी
वे तमाम चीज़ें जिन्हें हम कहीं न कहीं भूल आए
छूटी हुई हर एक चीज़ तो किसी के काम नहीं आती कभी भी
लेकिन कोई न कोई चीज़ तो किसी न किसी के
कभी न कभी काम आती ही होगी
जो उसका उपयोग करता होगा
जिसके हाथ लगी होंगी मेरी छूटी हुई चीजें
वह मुझे नहीं जानता होगा
हर बार मेरा छाता लगाते हुए
वह उस आदमी के बारे में सोचते हुए
मन-ही-मन शुक्रिया अदा करता होगा जिसे वह नहीं जानता
इस तरह एक अनाम अपरिचित की तरह उसकी स्मृति में
कहीं न कहीं मैं रह रहा हूँ जाने कितने दिनों से
जो मुझे नहीं जानता
जिसे मैं नहीं जानता
पता नहीं मैं कहाँ -कहाँ रह रहा हूँ
मैं एक अनुपस्थित-उपस्थित !
एक दिन रास्ते में मुझे एक सिक्का पड़ा मिला
मैंने उसे उठाया और आस-पास देखकर चुपचाप जेब में रख लिया
मन नहीं माना, लगा अगर किसी ज़रूरतमन्द का रहा होगा
तो मन-ही-मन वह कुढ़ता होगा
कुछ देर जेब में पड़े सिक्के को उँगलियों के बीच घुमाता रहा
फिर जेब से निकालकर एक भिखारी के कासे में डाल दिया
भिखारी ने मुझे दुआएँ दीं
उससे तो नहीं कह सका मैं
कि सिक्का मेरा नहीं है
लेकिन मन-ही-मन मैंने कहा
कि ओ भिखारी की दुआओ
जाओं उस शख्स के पास चली जाओ