Pratidin Ek Kavita

हवन | श्रीकांत वर्मा

चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था

जो बचेगा
कैसे रचेगा

पहले मैं झुलसा
फिर धधका

चिटखने लगा
कराह सकता था

मगर कैसे कराह सकता था
जो कराहेगा

कैसे निबाहेगा
न यह शहादत थी

न यह उत्सर्ग था
न यह आत्मपीड़न था

न यह सज़ा थी
तब

क्या था यह
किसी के मत्थे मढ़ सकता था

मगर कैसे मढ़ सकता था
जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा।


What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

हवन | श्रीकांत वर्मा

चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था

जो बचेगा
कैसे रचेगा

पहले मैं झुलसा
फिर धधका

चिटखने लगा
कराह सकता था

मगर कैसे कराह सकता था
जो कराहेगा

कैसे निबाहेगा
न यह शहादत थी

न यह उत्सर्ग था
न यह आत्मपीड़न था

न यह सज़ा थी
तब

क्या था यह
किसी के मत्थे मढ़ सकता था

मगर कैसे मढ़ सकता था
जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा।