कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
सुख का दुख | भवानीप्रसाद मिश्र
ज़िन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है,
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएँ घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूँ।
यहाँ एक बात
इससे भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,
मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें
सिखा दूँ कि सुख कोई डरने की चीज़ नहीं है।
मगर नहीं
मैंने देखा है कि जब कभी
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाज़ार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में ख़ुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ-साथ डर भी आ गया है।
बल्कि कहना चाहिये
ख़ुशी झलकी है, डर छा गया है,
उनका उठना उनका बैठना
कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह पाता,
और मुझे इतना दु:ख होता है देख कर
कि मैं उनसे कुछ कह नहीं पाता।
मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि बेटा यह सुख है,
इससे डरो मत बल्कि बेफ़िक्री से बढ़ कर इसे छू लो।
इस झूले के पेंग निराले हैं
बेशक इस पर झूलो,
मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते
खड़े खड़े ताकते हैं,
अगर कुछ सोचकर मैं उनको उसकी तरफ ढकेलता हूँ।
तो चीख मार कर भागते हैं,
बड़े बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने उन्हें फोड़ दी है।