Pratidin Ek Kavita


माँ - ममता कालिया 

पुराने तख़्त पर यों बैठती हैं
जैसे वह हो सिंहासन बत्तीसी।
हम सब
उनके सामने नीची चौकियों पर टिक जाते हैं
या खड़े रहते हैं अक्सर।
माँ का कमरा
उनका साम्राज्य है।
उन्हें पता है यहाँ कहाँ सौंफ की डिबिया है और कहाँ ग्रन्थ साहब
कमरे में कोई चौकीदार नहीं है
पर यहाँ कुछ भी
बगैर इजाज़त छूना मना है।
माँ जब ख़ुश होती हैं
मर्तबान से निकालकर थोड़े से मखाने दे देती हैं मुट्ठी में।
हम उनके कमरे में जाते हैं
स्लीपर उतार।
उनकी निश्छल हँसी में
तमाम दिन की गर्द-धूल छँट जाती है।
एक समाचार हम  उन्हें सुनाते हैं अख़बार से,
एक समाचार वे हमें सुनाती हैं
अपने मुँह ज़ुबानी अख़बार से।
उनके अख़बार में है
हमारा परिवार, पड़ोस, मुहल्ला और मुहाने की सड़क।
अक्सर उनके समाचार
हमारी ख़बरों से ज़्यादा सार्थक होते हैं।
उनकी सूचनाएँ ज़्यादा सही और खरी।
वे हर बात का
एक मुकम्मल हल ढूँढना चाहती हैं।
बहुत जल्द उन्हें
हमारी ख़बरें बासी और बेमज़ा लगती हैं।
वे हैरान हैं
कि इतना पढ़-लिखकर भी
हम किस क़दर मूर्ख हैं
कि दुनिया बदलने का दम भरते हैं
जबकि तकियों के ग़िलाफ़ हमसे बदले नहीं जाते!

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

पुराने तख़्त पर यों बैठती हैं
जैसे वह हो सिंहासन बत्तीसी।
हम सब
उनके सामने नीची चौकियों पर टिक जाते हैं
या खड़े रहते हैं अक्सर।
माँ का कमरा
उनका साम्राज्य है।
उन्हें पता है यहाँ कहाँ सौंफ की डिबिया है और कहाँ ग्रन्थ साहब
कमरे में कोई चौकीदार नहीं है
पर यहाँ कुछ भी
बगैर इजाज़त छूना मना है।
माँ जब ख़ुश होती हैं
मर्तबान से निकालकर थोड़े से मखाने दे देती हैं मुट्ठी में।
हम उनके कमरे में जाते हैं
स्लीपर उतार।
उनकी निश्छल हँसी में
तमाम दिन की गर्द-धूल छँट जाती है।
एक समाचार हम उन्हें सुनाते हैं अख़बार से,
एक समाचार वे हमें सुनाती हैं
अपने मुँह ज़ुबानी अख़बार से।
उनके अख़बार में है
हमारा परिवार, पड़ोस, मुहल्ला और मुहाने की सड़क।
अक्सर उनके समाचार
हमारी ख़बरों से ज़्यादा सार्थक होते हैं।
उनकी सूचनाएँ ज़्यादा सही और खरी।
वे हर बात का
एक मुकम्मल हल ढूँढना चाहती हैं।
बहुत जल्द उन्हें
हमारी ख़बरें बासी और बेमज़ा लगती हैं।
वे हैरान हैं
कि इतना पढ़-लिखकर भी
हम किस क़दर मूर्ख हैं
कि दुनिया बदलने का दम भरते हैं
जबकि तकियों के ग़िलाफ़ हमसे बदले नहीं जाते!