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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
पहरा | अर्चना वर्मा
जहां आज बर्फ़ है
बहुत पहले
वहां एक नदी थी
एक चेहरा है निर्विकार
जमी हुई नदी.
आंख, बर्फ़ में सुराख़
द्वार के भीतर
है तो एक संसार मगर
कैद
हलचलों पर मुस्तैद
महज़ अंधेरा है
सख़्त और ख़ूँख़ार और गहरा है.
पहरा है उस पर जो
बर्फं की नसों में बहा
नदी ने जिसे जम कर सहा