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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
अँकुर | इब्बार रब्बी
अँकुर जब सिर उठाता है
ज़मीन की छत फोड़ गिराता है
वह जब अन्धेरे में अंगड़ाता है
मिट्टी का कलेजा फट जाता है
हरी छतरियों की तन जाती है कतार
छापामारों के दस्ते सज जाते हैं
पाँत के पाँत
नई हो या पुरानी
वह हर ज़मीन काटता है
हरा सिर हिलाता है
नन्हा धड़ तानता है
अँकुर आशा का रँग जमाता है।