Nayidhara Ekal

नई धारा एकल के इस एपिसोड में देखिए प्रसिद्ध अभिनेता वीरेंद्र सक्सेना द्वारा भीष्म साहनी के नाटक ‘हानूश’ में से एक अंश।

नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करेंगे और साथ ही साझा करेंगे उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें। दिनकर की कृति ‘रश्मिरथी’ से मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ तक और धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ से भीष्म साहनी के ‘हानूश’ तक - आधुनिक हिन्दी साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण कृतियाँ, आपके पसंदीदा अदाकारों की ज़बानी।

What is Nayidhara Ekal?

साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।

नमस्कार। मेरा नाम अमिताभ श्रीवास्तव है और स्वागत है आप सबका हमारे इस नए कार्यक्रम ‘नई धारा एकल’ में। इस प्रोग्राम में हम लोग हर बार किसी जाने माने अभिनेता या अभिनेत्री से मिलते हैं और सुनते हैं उनसे उनकी पसंद की रचना का कोई एक अंश!
हमारे आज के खास मेहमान हैं श्री वीरेंद्र सक्सेना।
वीरेंद्र जी मूलतः मथुरा से हैं। 1976 में आप दिल्ली आए और दिल्ली आते ही यहाँ की एक नाट्य संस्था ‘प्रयोग’ में शामिल हो गए। ‘प्रयोग’ में रहते हुए आपने अनेक नाटकों में अभिनय किया और इसके बाद 1979 में आपका दाख़िला एनएसडी यानी कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हुआ। तीन साल तक वहाँ पढ़ाई की, उसके बाद वहाँ से निकल कर आप पुनः दिल्ली के रंगमंच से जुड़ गए। कई नाटकों में अभिनय किया। आपने एक नाटक का निर्देशन भी किया जिसका नाम था ‘ये आदमी ये चूहे’।
ये प्रस्तुति बहुत लोकप्रिय हुई और उस जमाने में इस नाटक के देश के विभिन्न शहरों में अनेक प्रदर्शन हुए, लेकिन आज वीरेंद्र जी हम लोगों के लिए ले के आ रहे हैं भीष्म साहनी की पहली नाटक रचना ‘हानूश’ से उसके मुख्य किरदार का एक संवाद।
‘हानूश’ नाटक की कहानी चेकोस्लोवाकिया के प्राग शहर में घटित होती है। भीष्म जी पुस्तक के फ्लैप पर लिखते हैं कि लगभग पाँच सौ साल पहले प्राग में रहने वाले एक ताला ठीक करने वाले मिस्त्री के मन में एक घड़ी बनाने का भूत सवार होता है और तरह-तरह की विषम परिस्थितियों से जूझते हुए बड़ी मुश्किल से लगभग 17 साल की मेहनत के बाद वो एक पहली घड़ी बनाने में कामयाब हो जाता है!
चेकोस्लोवाकिया देश की पहली घड़ी! राजा बहुत खुश होता है और उस घड़ी को प्राग शहर की नगरपालिका की मीनार पे लगवाता है। हानूश को इसका पुरस्कार भी मिलता है, इस घड़ी को बनाने का। वो पुरस्कार ये है कि उसे अंधा कर दिया जाता है ताकि वो ऐसी ही कोई दूसरी घड़ी कभी भी न बना सके! हाँ, राजा उसे अपने राज्य का दरबारी भी नियुक्त करता है, लेकिन होनी कुछ ऐसी होती है कि लगभग दो साल बाद वो घड़ी ख़राब हो जाती है। कोई भी उसे ठीक नहीं कर पा रहा है। तब राजा हानूश को उस घड़ी को ठीक करने भेजता है जो हानूश को बहुत प्रिय थी।
आगे क्या होता है आइए देखते हैं–
इस हथौड़ी से कुछ तो टूटेगा। कुछ तो टूटेगा इस हथौड़ी से। अगर किसी पुर्जे पर लग गया तो? वो किसी एक नाजुक पुर्जे पर लग गया तो फिर तो इसकी कभी मरम्मत भी नहीं की जा सकती…कभी ठीक नहीं की जा सकती! और लीवर पर लग गया तो सब कुछ खतम…!
इसका पेंडुलम मिल जाए तो मैं लीवर से खींचकर हमेशा-हमेशा के लिए तोड़ सकता हूँ। ये ठीक है…! ये क्या है…ये…हाँ, ये तो घड़ी है, यही तो मेरी घड़ी है! हाँ…हाँ! यहाँ एक बड़ा सा चक्कर होगा…हाँ हा ये रहा। कैसा बेजान-सा पड़ा है, कोई हरकत नहीं है इसमें तो! ये रहा उसका तूरा…मतलब पेंडुलम यहीं कहीं नीचे होना चाहिए। जैकब होता तो मुझे सब कुछ बता देता कि कौन सी चीज़ कहाँ है, लेकिन…अच्छा है वो नहीं है। वरना मेरी हिम्मत साथ दे जाती…ह्ह्ह्…मैं इस घड़ी के पास कहाँ आ गया हूँ, कहाँ हूँ मैं? येय्य्…ये तो लीवर है, हाँ…हाँ, ये तो लीवर है, लेकिन ये तो टूटा हुआ है! मैंने पहले ही कहा था कि लीवर बहुत कमज़ोर है, इसमें पीतल की मात्रा तोड़ी सी कम होनी चाहिए। ह्ह्ह…अच्छा है मैं भी तो इसी को ढूँढ़ रहा था। बस मेरा काम तो हो गया! लेकिन, इसे अभी…पेंडुलम टूट गया तो उसको अभी तोड़ दूँगा। इसको तोड़ने का मतलब है कि इसकी…दम घुट गया और अब इसकी कभी भी मरम्मत नहीं हो सकती, लेकिन ये घड़ी दो…दो साल में ख़राब हो गई! क्या बनाया है मैंने? क्या किया था मैंने? ह्ह्…इतना…ऐसा तो कोई नौसिखिया भी नहीं करता! ह्ह्ह..ये लीवर यहाँ से टूटा है, ये यहाँ से टूटा है! जैकब होता तो बताता कि कौन-सा पुर्जा कहाँ से टूटा है। ठीक है…ठीक है…मैं इसके लीवर को तोड़कर अपनी जेब में रख लूँगा और किसी को बताऊँगा नहीं कि लीवर के टूटने से ये घड़ी ख़राब हुई है…ह्ह्ह्…ह्…लेकिन मैं क्या करूँगा इस लीवर का, क्या करूँगा इसको ले जा करके अब निशानी के तौर पर। लीवर से क्या लेना-देना…!
बहुत ही प्रभावशाली! मुझे याद है कि वीरेंद्र सक्सेना जी एनएसडी में पढ़ते थे और शायद सेकेंड ईयर में थे जब उन्होंने ये नाटक किया था। इसका निर्देशन किया था भानु भारती जी ने। तो हमने पूछा वीरेंद्र जी से कि इस नाटक को करने का और खासकर हानूश जैसे एक चरित्र को निभाने का उनका अनुभव कैसा था?
हम लोग एनएसडी के शायद सेकेंड ईयर में थे, तब हमने ये प्ले किया था, भानु भारती जी ने प्ले किया था। उसमें से रिलेटेड दो-चार बड़ी इंटरेस्टिंग सी बात है कि, मुझे मालूम है जब इस प्ले की रीडिंग के लिए बुलाया गया तो सबसे पहले भानु जी ने कहा कि वीरू तुम ये पढ़ो। मेरे साथ की एक क्लासमेट हैं पूर्णिमा। पूर्णिमा, वैसे तो वो एक पाठक हुआ करती थी, लेकिन उन्होंने हमारे एक सीनियर से शादी की थी। तो वो असम में है और वो बहुत बड़ी एक्ट्रेस थीं। तो हम दोनों से कहा था उस प्ले को पढ़ने के लिए। इस बात को ले करके हमारे क्लास में काफी सारे लोगों को तकलीफ भी हुई थी कि मुझसे ही क्यों कहा गया इस सीन को पढ़ने के लिए, और उसके अलावा किसी से कहा भी नहीं गया, और फायनली उन्होंने हानूश किया भी। मुझे उसकी सिर्फ एक चीज़ याद है, मैंने इसीलिए उसको अलग से मार्क भी कर रखा है। मैं चाहता हूँ कि मैं इस सीन को थोड़ा सा पढ़ दूँ।
ये बड़ा इंटरेस्टिंग सीन है कि हानूश के लिए बेसिकली…। हानूश ताले बनाता था, एक बड़ा मैकनिक था, लोहे का काम करता था। उसके लिए घड़ी बनाना, उसकी एक क्रिएशन, उसके लिए एक बच्चे जैसी चीज़़ थी। जो कि, पहली बार उसको एक ऐसा काम मिला। पहली बार और जब उसने घड़ी बना ली इसीलिए जब वो एंड में उसको ठीक करने के लिए जाता है। उसको सिर्फ तकलीफ यही है कि मैं उसको तोड़ूँ या नहीं तोड़ूँ। तोड़ूँगा तो मैंने जो कुछ भी क्रिएट किया था सब कुछ खतम हो जाएगा। और अगर मैं नहीं तोड़ता हूँ तो कैसे बदला चुकाऊँगा इन लोगों से, जिन्होंने…! मैं ये कर सकता था, मैं शायद और भी कितनी घड़ियाँ बनाता! लेकिन राजा ने मेरी आँखें निकलवा दीं। और वही हुआ जो कि मेरी पत्नी ने…इन वे…ये तो नहीं आगाह किया था लेकिन उसको एक हल्का-सा, थोड़ा-सा आइडिया था।
एक सीन है जिसमें कि वो कहती है, वो कहती है, ‘सुनो हानूश, मैं जानती हूँ तुम काम नहीं छोड़ोगे। मैं घर की दो जून रोटी का तो इंतजाम करूँ, तुम मुझे कब समझोगे हानूश! मेरा बस चले तो मैं सारी देखभाल अपने सिर पर ले लूँ। ये थोड़ा सा ताले बनाने का काम भी तुम पर बोझ है न इसको भी तुम पर से हटा लूँ और तुम्हें खुला छोड़ दूँ। फिर तुम्हारा जो मन में आए वो करो, मुझसे पूछो तो तुम्हारा ब्याह करना भी भूल थी। ब्याह करके न तुमने कुछ सुख पाया और न मैंने।’
वो कहता है, ‘क्या मतलब? तुम मेरे साथ बहुत दुखी हो कात्या।’
वो कहती है, ‘इस तरह से मुँह को लटका लेने से क्या फायदा? मैं जानती हूँ तुम दिल के बुरे नहीं हो, पर तुम्हारी ये सच्चाई हमारे लिए किस काम की? मैं तुम्हें सच्च-सच्च बताऊँ हानूश!’
वो कहता है, ‘हाँ, हाँ बोलो कात्या!’
‘तुम परले दर्जे के स्वार्थी हो। तुम्हें सारा वक्त अपने काम से मतलब रहता है। हम जिएँ या मरें तुम्हारी बला से।’
वो कहता है, ‘ये स्वार्थ नहीं है कात्या! मैं अपने लिए नहीं करता।’
वो कहती है, ‘ये स्वार्थ नहीं है तो क्या है? पैसे के लिए ही तो करते हो, या नाम कमाने के लिए। पैसे के लिए करते तो इतने स्वार्थी नहीं होते। तुम्हारे पैसों से परिवार का पेट तो पलता।’
‘तुम ऐसी बातें करके मेरा बचा-खुचा विश्वास क्यों छीन लेना चाहती हो कात्या!’
वो कहती है, ‘मैं तुमसे कुछ नहीं कहती हानूश। जो तुम्हारे मन में आए करो। मैंने अगर इस लड़के को रखा है तो इसलिए कि या तो तुम्हारी घर की सारी जिम्मेदारियों से तुम्हें छुटकारा मिल जाए। ये ताले बना दिया करेगा और मैं बेच आया करूँगी। तुम्हारे जो मन में आए वो करो।’
वो कहता है, ‘तुम्हें ये सब मेरे साथ दुख झेलने पड़ रहे हैं इसका मुझे बहुत तकलीफ है कात्या।’
वो कहती है कि, ‘नहीं, आज से तुम आज़ाद हो। अपने वज़ीफ़े का इन्तज़ाम करो। तुम्हें जो कुछ भी करना है करो!’
पर इस तरीके का एक दौर में से वो आदमी गुज़रता है तो फिर उसको एक पागलपन-सा भी सवार होता है। जिस पागलपन में वो घड़ी बनाता है और उसकी…एक तरीके से देखा जाए तो वो घड़ी ही उसकी पूरी तरीके से ज़िंदगी हो गई थी। जिसको पूरी तरीके से राजा ने बर्बाद कर दिया। दिस इज़ ओवर ऑल द स्टोरी…दिस इज़ वेरी इमोश्नल स्टोरी। जैसे कि बिल्कुल ऐसा है, जैसे कि दो बच्चों, एक मियाँ-बीवी में डिवोर्स हो और बीवी कहे कि बच्चे को मैं ले जाऊँगी और बाप कहे कि नहीं ये बच्चा तो मेरा है। इसे मैं नहीं ले जाने दूँगा। …कुछ इस तरीके का है।
हमने इसका शो रविन्द्र भवन के स्टूडियो थिएटर में किया था, जो कि रेपर्टरी वाला था। और भीष्म जी भी इसको देखने के लिए आए थे। उन्होंने एक लाईन कही थी, जो कि मुझे बहुत अच्छी लगी, मेरे को बड़ा टच कर गई। कहने को ऐसी जगह पर बोलना नहीं चाहिए, लेकिन मैं चाहता हूँ कि मैं बोलूँ। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुमने मेरे कैरेक्टर को, हानूश को जीवंत कर दिया। ये मुझे सबसे अच्छी बात लगी थी। उन्हीं की किताब में - ये किताब के पीछे वाले फ्लैप पर कुछ लाइनें हैं जो इस नाटक की लाइनें हैं। जो कि हानूश की आँखें निकाल लेने के बाद, हानूश अपनी पत्नी से कहता है, कात्या से। कहता है, ‘कात्या, तुम नाराज़ हो मैं जानता हूँ, तुम समझती हो कि मैं तुम्हारा चेहरा देख नहीं सकता। तुम्हारा चेहरा सारा वक्त मेरी आँखों के सामने रहता है। जब तुम नाराज़ होती हो तो मैं तुम्हारे चेहरे की एक-एक शिकन भी देख सकता हूँ।’ बहुत अच्छी लाईन लगी!
तो ये थी हमारी आज की प्रस्तुति। इस कार्यक्रम की अगली कड़ी में हम मिलेंगे एक और बेहतरीन अभिनेता विपिन शर्मा जी से। आपलोग प्लीज़ ‘नई धारा’ के यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें और हमारे सोशल मीडिया से जुड़ें।
नमस्कार!