Pratidin Ek Kavita

धूप | रूपा सिंह

धूप!!
धधकती, कौंधती, खिलखिलाती
अंधेरों को चीरती, रौशन करती।
मेरी उम्र भी एक धूप थी
अपनी ठण्डी हड्डियों को सेंका करते थे जिसमें तुम!
मेरी आत्मा अब भी एक धूप
अपनी बूढ़ी हड्डियों को गरमाती हूँ जिसमें।
यह धूप उतार दूँगी,
अपने बच्चों के सीने में
ताकि ठण्डी हड्डियों वाली नस्लें
इस जहाँ से ही ख़त्म हो जाएँ।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

धूप | रूपा सिंह

धूप!!
धधकती, कौंधती, खिलखिलाती
अंधेरों को चीरती, रौशन करती।
मेरी उम्र भी एक धूप थी
अपनी ठण्डी हड्डियों को सेंका करते थे जिसमें तुम!
मेरी आत्मा अब भी एक धूप
अपनी बूढ़ी हड्डियों को गरमाती हूँ जिसमें।
यह धूप उतार दूँगी,
अपने बच्चों के सीने में
ताकि ठण्डी हड्डियों वाली नस्लें
इस जहाँ से ही ख़त्म हो जाएँ।