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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
चुपचाप उल्लास | भवानीप्रसाद मिश्र
हम रात देर तक
बात करते रहे
जैसे दोस्त
बहुत दिनों के बाद
मिलने पर करते हैं
और झरते हैं
जैसे उनके आस पास
उनके पुराने
गाँव के स्वर
और स्पर्श
और गंध
और अंधियारे
फिर बैठे रहे
देर तक चुप
और चुप्पी में
कितने पास आए
कितने सुख
कितने दुख
कितने उल्लास आए
और लहराए
हम दोनों के बीच
चुपचाप !