कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
शांत अंधेरे सन्नाटे के बीच
चीखती गुजरती एक आवाज़
लोहे के लोहे से टकराने की
या उस भूखे पेट के गुर्राने की
जो लेटा है उसी लोहे के सड़क किनारे
किसी भिनभिनाती-सी जगह पर
खेल रही हैं कुछ मक्खियाँ उसके मुख पर
जैसे वो जानती हों कि गरीब यहाँ सिर्फ खेलने की चीज है
इस बीच कुछ लोग गुज़रे उधर से उसे निहारते हुए
कोई हँसा कोई मुस्कुराया
किसी को घृणा हुई किसी ने अफसोस जताया
आखिर करते भी क्या बेचारे
इंसान जो ठहरे
इनके पास कहाँ इतना वक्त
कि जिस थाली के सिर्फ दो निवाले खाने के बाद
उससे कूड़े दान का पेट भर दिया गया
उसी थाली से उस पेट को भर दे
जिसमें से आ रही थी वह सन्नाटे को चीरने वाली आवाज
और वो शख्स अभी भी
घुटनों से पेट को जकड़े हुए
हाथों से घुटनों को पकड़े हुए
इसी इंतज़ार में बैठा है कि कोई तो अपनी
झूठी थाली कूड़ेदान को ना देकर भूखदान को देगा