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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
जीवन | अज्ञेय
चाबुक खाए
भागा जाता
सागर-तीरे
मुँह लटकाए
मानो धरे लकीर
जमे खारे झागों की—
रिरियाता कुत्ता यह
पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए।
कटा हुआ
जाने-पहचाने सब कुछ से
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
और अजाने-अनपहचाने सब से
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
उस ठण्डे पारावार से!