Pratidin Ek Kavita

बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से | शहंशाह आलम 

बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से

बचपन में हम सब कितनी दफ़ा निकल जाते थे
घर से नंगे पाँव बारिश के पानी में छपाछप करने

उन दिनों हम कवि नहीं हुआ करते थे
ख़ालिस बच्चे हुआ करते थे नए पत्ते के जैसे

बारिश में बिना जूते के निकलना
अपने बचपन को याद करना है
इस निकलने में फ़र्क़ इतना भर है
कि माँ की आवाज़ें नहीं आतीं पीछे से

सच यही है माँ की मीठी आवाज़ें पीछा कहाँ छोड़ती हैं
दिन बारिश के हों, दिन धूप के हों या दिन बर्फ़ के हों

माँ की आवाज़ों को पकड़े-पकड़े मैं घर से दूर चला आया हूँ

अब बारिश की आवाज़ें माँ की आवाज़ें हैं
बाँस के पेड़ों से भरे हुए इस वन में मेरे लिए।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से | शहंशाह आलम

बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से

बचपन में हम सब कितनी दफ़ा निकल जाते थे
घर से नंगे पाँव बारिश के पानी में छपाछप करने

उन दिनों हम कवि नहीं हुआ करते थे
ख़ालिस बच्चे हुआ करते थे नए पत्ते के जैसे

बारिश में बिना जूते के निकलना
अपने बचपन को याद करना है
इस निकलने में फ़र्क़ इतना भर है
कि माँ की आवाज़ें नहीं आतीं पीछे से

सच यही है माँ की मीठी आवाज़ें पीछा कहाँ छोड़ती हैं
दिन बारिश के हों, दिन धूप के हों या दिन बर्फ़ के हों

माँ की आवाज़ों को पकड़े-पकड़े मैं घर से दूर चला आया हूँ

अब बारिश की आवाज़ें माँ की आवाज़ें हैं
बाँस के पेड़ों से भरे हुए इस वन में मेरे लिए।