कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
कसौटियाँ | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
'जो एक का सत्य है
वही सबका सत्य है'
—यह बात बहुत सीधी थी
लेकिन वे चीजों पर उलटा विचार करते थे
उन्होंने सबके लिए एक आचार—संहिता तैयार की थी
लेकिन खुद अपने विशेषाधिकार में जीते थे
उनकी कसौटियाँ झाँवें की तरह खुरदरी थीं
जिसे वे आदमियों की त्वचा पर रगड़ते थे
और इस तरह कसते थे आदमी को
आदमी बड़ा था और कसौटियाँ छोटी
इस पर वे झुंझलाते थे
और आदमी को रगड़—रगड़कर
छोटा करते जाते थे
उन्होंने गौर से देखा
उस जिद्दी अड़ियल आदमी को
नंगा करके उसकी एक-एक मांसपेशी को
उसके सीधे तने शरीर
और उसकी बुनी हुई रस्सी जैसी भुजाओं को
जो उनके सुख बाँटने की माँग कर रहा था
'यह पूरा-का-पूरा आदमी
एक संक्रामक रोग है'
वे बुदबुदाए
और जल्दी-जल्दी
अध्यादेशों पर दस्तखत करने लगे।