कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
फ़र्नीचर | अनामिका
मैं उनको रोज़ झाड़ती हूँ
पर वे ही हैं इस पूरे घर में
जो मुझको कभी नहीं झाड़ते!
रात को जब सब सो जाते हैं—
अपने इन बरफाते पाँवों पर
आयोडिन मलती हुई सोचती हूँ मैं—
किसी जनम में मेरे प्रेमी रहे होंगे फ़र्नीचर,
कठुआ गए होंगे किसी शाप से ये!
मैं झाड़ने के बहाने जो छूती हूँ इनको,
आँसुओं से या पसीने से लथपथ-
इनकी गोदी में छुपाती हूँ सर-
एक दिन फिर से जी उठेंगे ये!
थोड़े-थोड़े-से तो जी भी उठे हैं।
गई रात चूँ-चूँ-चू करते हैं :
ये शायद इनका चिड़िया का जनम है,
कभी आदमी भी हो जाएँगे!
जब आदमी ये हो जाएँगे,
मेरा रिश्ता इनसे हो जाएगा क्या
वो ही वाला
जो धूल से झाड़न का?