कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
डेली पैसेंजर | अरुण कमल
मैंने उसे कुछ भी तो नहीं दिया
इसे प्यार भी तो नहीं कहेंगे
एक धुँधले-से स्टेशन पर वह हमारे डब्बे में
चढ़ी
और भीड़ में खड़ी रही कुछ देर सीकड़ पकड़े
पाँव बदलती
फिर मेरी ओर देखा
और मैंने पाँव सीट से नीचे कर लिए
और नीचे उतार दिया झोला
उसने कुछ कहा तो नहीं था
वह आ गई
और मेरी बग़ल में बैठ गई
धीरे से पीठ तख़्ते से टिकाई
और लंबी साँस ली
ट्रेन बहुत तेज़ चल रही थी
आवाज़ से लगता था
ट्रेन बहुत तेज़ चल रही थी
झोंक रही थी हवा को खिड़कियों की राह
बेलचे में भर-भर
चेहरे पर
बाँहों पर
खुल रहा था रंध्र-रंध्र
कि सहसा मेरे कंधे से
लग गया
उस युवती का माथा
लगता है बहुत थकी थी
वह कामगार औरत
काम से वापस घर लौट रही थी
एक डेली पैसेंजर।