कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
ठिठुरते लैंप पोस्ट | अदनान कफ़ील दरवेश
वे चाहते तो सीधे भी खड़े रह सकते थे
लेकिन आदमियों की बस्ती में रहते हुए
उन्होंने सीख ली थी अतिशय विनम्रता
और झुक गए थे सड़कों पर
आदमियों के पास, उन्हें देखने के अलग-अलग नज़रिए थे :
मसलन, किसी को वे लगते थे बिल्कुल संत सरीखे
दृढ़ और एक टाँग पर योग-मुद्रा में खड़े
किसी को वे शहंशाह के इस्तक़बाल में
क़तारबंद खड़े सिपाहियों-से लगते थे
किसी को विशाल पक्षियों से
जो लंबी उड़ान के बाद थक कर सुस्ता रहे थे
लेकिन एक बच्चे को वे लगते थे उस बुढ़िया से
जिसकी अठन्नी गिर कर खो गई थी; जिसे वह ढूँढ़ रही थी
जबकि किसी को वे सड़क के दिल में धँसी
सलीब की तरह लगते थे
आदमियों की दुनिया में वे रहस्य की तरह थे
वे काली ख़ूनी रातों के गवाह थे
शराबियों की मोटी पेशाब की धार और उल्टियों के भी
जिस दिन हमारे भीतर
लगातार चलती रही रेत की आँधी
जिसमें बनते और मिटते रहे
कई धूसर शहर
उस रोज़ मैंने देखा
ख़ौफ़नाक चीख़ती सड़कों पर
झुके हुए थे
बुझे हुए
ठिठुरते लैंप पोस्ट…