कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
जो कुछ देखा-सुना, समझा, लिख दिया | निर्मला पुतुल
बिना किसी लाग-लपेट के
तुम्हें अच्छा लगे, ना लगे, तुम जानो
चिकनी-चुपड़ी भाषा की उम्मीद न करो मुझसे
जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते
मेरी भाषा भी रूखड़ी हो गई है
मैं नहीं जानती कविता की परिभाषा
छंद, लय, तुक का कोई ज्ञान नहीं मुझे
और न ही शब्दों और भाषाओं में है मेरी पकड़
घर-गृहस्थी सँभालते
लड़ते अपने हिस्से की लड़ाई
जो कुछ देखा-सुना-भोगा
बोला-बतियाया
आस-पड़ोस में संगी-साथी से
लिख दिया सीधा-सीधा समय की स्लेट पर
टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में, जैसे-तैसे
तुम्हारी मर्ज़ी तुम पढ़ो न पढ़ो!
मिटा दो, या कर दो नष्ट पूरी स्लेट ही
पर याद रखो।
फिर कोई आएगा, और लिखे-बोलेगा वही सब कुछ
जो कुछ देखे-सुनेगा
भोगेगा तुम्हारे बीच रहते
तुम्हारे पास शब्द हैं, तर्क हैं, बुद्धि है
पूरी की पूरी व्यवस्था है तुम्हारे हाथों
तुम सच को झुठला सकते हो बार-बार बोलकर
कर सकते हो ख़ारिज एक वाक्य में सब कुछ मेरा
आँखों देखी को
ग़लत साबित कर सकते हो तुम
जानती हूँ मैं
पर मत भूलो!
अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुए
सच को सच
और झूठ को
पूरी ताक़त से झूठ कहने वाले लोग!