Pratidin Ek Kavita

तुम हँसी हो | अज्ञेय

तुम हँसी हो - जो न मेरे होंठ पर दीखे, 
मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है। 
धूप - मुझ पर जो न छाई हो, 
किंतु जिसकी ओर 
मेरे रुद्ध जीवन की कुटी की खिड़कियाँ खुलती रही हैं। 
तुम दया हो जो मुझे विधि ने न दी हो, 
किंतु मुझको दूसरों से बाँधती है 
जो कि मेरी ही तरह इंसान हैं। 
आँख जिनसे न भी मेरी मिले, 
जिनको किंतु मेरी चेतना पहचानती है। 
धैर्य हो तुम : जो नहीं प्रतिबिंब मेरे कर्म के धुँधले मुकुर में पा सका, 
किंतु जो संघर्ष-रत मेरे प्रतिम का, मनुज का, 
अनकहा पर एक धमनी में बहा संदेश मुझ तक ला सका, 
व्यक्ति की इकली व्यथा के बीज को 
जो लोक-मानस की सुविस्तृत भूमि में पनपा सका। 
हँसी ओ उच्छल, दया ओ अनिमेष, 
धैर्य ओ अच्युत, आप्त, अशेष। 

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

तुम हँसी हो | अज्ञेय

तुम हँसी हो - जो न मेरे होंठ पर दीखे,
मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है।
धूप - मुझ पर जो न छाई हो,
किंतु जिसकी ओर
मेरे रुद्ध जीवन की कुटी की खिड़कियाँ खुलती रही हैं।
तुम दया हो जो मुझे विधि ने न दी हो,
किंतु मुझको दूसरों से बाँधती है
जो कि मेरी ही तरह इंसान हैं।
आँख जिनसे न भी मेरी मिले,
जिनको किंतु मेरी चेतना पहचानती है।
धैर्य हो तुम : जो नहीं प्रतिबिंब मेरे कर्म के धुँधले मुकुर में पा सका,
किंतु जो संघर्ष-रत मेरे प्रतिम का, मनुज का,
अनकहा पर एक धमनी में बहा संदेश मुझ तक ला सका,
व्यक्ति की इकली व्यथा के बीज को
जो लोक-मानस की सुविस्तृत भूमि में पनपा सका।
हँसी ओ उच्छल, दया ओ अनिमेष,
धैर्य ओ अच्युत, आप्त, अशेष।