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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
एक पल ही सही | नंदकिशोर आचार्य
कभी निकाल बाहर करूँगा मैं
समय को
हमारे बीच से
अरे, कभी तो जीने दो थोड़ा
हम को भी अपने में
ठेलता ही रहता है
जब देखो जाने कहाँ
फिर चाहे शिकायत कर दे वह
उस ईश्वर को
देखता जो आँखों से उसकी
उसी के कानों से सुनता
दे दे वह भी सज़ा जो चाहे
एक पल ही सही
जी तो लेंगे हम
थोड़ा एक-दूसरे में
समय के-
और उस पर निर्भर
ईश्वर के-
बिना
देखता हूँ पर हमारे बिना
कैसे जिएँगे वे ख़ुद?