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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा | विनोद कुमार शुक्ल
घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा
अपने संन्यास में
मैं और भी घरेलू रहूंगा
घर में घरेलू
और पड़ोस में भी।
एक अनजान बस्ती में
एक बच्चे ने मुझे देखकर बाबा कहा
वह अपनी माँ की गोद में था
उसकी माँ की आँखों में
ख़ुशी की चमक थी
कि उसने मुझे बाबा कहा
एक नामालूम सगा।