कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
लोक मल्हार | डॉ श्योराज सिंह 'बेचैन'
सुन बहिना!
मेरे जियरबा की बात
उदासी मेरे मन बसी।
सैंया तलाशें री बहना नौकरी
देवर स्वप्न में फिल्मी छोकरी।
मेरी बहिना, ननदी
तलाशे भरतार, ससुर
ढूँढे लखपति........मेरी बहिना!
मैं ना पढ़ी , न
मेरे बालका
शोषण करे हैं
मेरे मालिका
मोइ न मिल्यौ री
स्वराज ।
मेरी बहना
गुलामों जैसी जिन्दगी ।
सुन बहना
मेरे जियरबा की बात
उदासी मेरे मन बसी
कड़वी, दुखीली,
बैरिन रात है।
रोटी-रोजी की
उलझन ख़ास है।
मेरी बहना ललुआ
पड़यौ है बीमार
नकद माँगे वैद्य जी....
करजा में गिरवी
खेती बाप की
माया है पटवरिया
के पाप की
मेरी बहिना
पुलिस, वकलिन का मार
पड़ी है मोपे बेतुकी
मायके रहूं
या ससुराल में
मैं तो हूँ जैसे
मछली जाल में
मेरी बहना, करके
अमीरी को ढोंग,
गरीबी मेरे घर बसी।
मेरी बहना मेरे जियरबा की बात
सोने की कीमत
राशन है गयो
स्नेह सुख को सपनों
सपनो ही रह गयौ।
मेरी बहना, नैया पड़ी है
मझधार,
समूचे मेरे देश की।....
मेरी बहना मेरे जियरबा की बात
उदासी मेरे मन बसी।।