कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
हमारे शहर की स्त्रियाँ | अनूप सेठी
एक साथ कई स्त्रियाँ बस में चढ़ती हैं
एक हाथ से संतुलन बनाए
एक हाथ में रुपए का सिक्का थामे
बिना धक्का खाए काम पर पहुँचना है उन्हें
दिन भर जुटे रहना है उन्हें
टाइप मशीन पर, फ़ाइलों में
साढ़े तीन पर रंजना सावंत ज़रा विचलित होंगी
दफ़्तर से तीस मील दूर सात साल का अशोक सावंत
स्कूल से लौट रहा है गर्मी से लाल हुआ
पड़ोसिन से चाबी लेकर घर में घुस जाएगा
रंजना सावंत उँगलियाँ चटका कर घर से तीस मील दूर
टाइप मशीन की खटपट में खो जाएँगी
वह नहीं सुनेंगी सड़ियल बॉस की खटर-पटर।
मंजरी पंडित लौटते हुए वी.टी. पर लोकल में चढ़ नहीं पाएँगी
धरती घूमेगी ग़श खाकर गिरेंगी
लोग घेरेंगे दो मिनट
कोई सिद्ध समाज सेविका पानी पिलाएगी
मंजरी उठ खड़ी होंगी
रक्त की कमी है छाती में ज़िंदगी जमी है
साँस लेना है अकेली संतान होने का माँ-बाप को मोल देना है
एक साथ कई स्त्रियाँ बस में चढ़ती हैं
एक हाथ से संतुलन बनाए
छाती से सब्ज़ी का थैला सटाए
बिना धक्का खाए घर पहुँचना है उन्हें
बंद घरों में बत्तियाँ जले रहने तक डटे रहना है
अँधेरे में और सपने में खटना है
नल के साथ जगना है हर जगह ख़ुद को भरना है
चल पड़ना है एक हाथ से संतुलन बनाए
रोज़ सुबह वी.टी. चर्चगेट पर ढेर गाड़ियाँ ख़ाली होती हैं
रोज़ शाम को वहीं से लद कर जाती हैं
बहुत सारे पुरुष भी इन्हीं गाड़ियों से आते-जाते हैं
उपनगरों में जाकर सारे पुरुष दूसरी दुनिया में ओझल हो जाते हैं
वे समय और सुविधा से सिक्के, सब्ज़ियाँ और देहें देखते हैं
सारी स्त्रियाँ किसी दूसरी ही दुनिया में रहती हैं
किसी को भी नहीं दिखतीं स्त्रियाँ।