Nayidhara Ekal

नई धारा एकल के इस एपिसोड में देखिए मशहूर अभिनेता विपिन शर्मा द्वारा, राजेंद्र यादव द्वारा अनुदित आल्बेयर कामू के उपन्यास ‘अजनबी’ में से एक अंश।

नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करेंगे और साथ ही साझा करेंगे उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें। दिनकर की कृति ‘रश्मिरथी’ से मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ तक और धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ से भीष्म साहनी के ‘हानूश’ तक - आधुनिक हिन्दी साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण कृतियाँ, आपके पसंदीदा अदाकारों की ज़बानी।

सुप्रसिद्ध अभिनेत्री सीमा भार्गव पाहवा द्वारा मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ में से एक अंश।
नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करेंगे और साथ ही साझा करेंगे उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें।

What is Nayidhara Ekal?

साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।

नमस्कार, मैं अमिताभ श्रीवास्तव स्वागत करता हूँ आप सब का हमारे इस ख़ास प्रोग्राम में, जिसका नाम है ‘नई धारा एकल’। इस कार्यक्रम में हम हर बार किसी प्रसिद्ध अभिनेता-अभिनेत्री से उसकी पसंद की रचना का एक अंश सुनते हैं।
हमारी आज की कलाकार हैं–सीमा पाहवा। सीमा पाहवा की माता जी श्रीमती सरोज भार्गव, दिल्ली रंगमंच की एक बहुत ही बेहतरीन और वरिष्ठ अभिनेत्री थीं, और इसीलिए अभिनय सीमा जी को विरासत में मिला। इन्होंने बचपन से ही नाटकों में काम करना शुरू कर दिया था और दिल्ली के अनेक रंग-मंडलों में बतौर अभिनेत्री कार्यरत रहीं। सन् 1983 में जब एक नया थियेटर ग्रुप बना ‘संभव’ तो सीमा जी उससे जुड़ीं और बहुत जल्दी ही उस दल की प्रमुख अभिनेत्री बन गईं। आज सीमा जी हम लोगों के लिए मोहन राकेश का बहुत ही चर्चित नाटक जो है ‘आधे अधूरे’ उसमें से सावित्री की एक स्पीच ले कर के आई हैं।
‘आधे अधूरे’ मध्यम वर्गीय परिवारों की जद्दोजहद, उनकी कुंठाओं, उनकी दबी-छुपी इच्छाओं का नाटक है। महेंद्रनाथ और सावित्री पति पत्नी हैं। महेंद्रनाथ अभी शायद कुछ नहीं करता है, सावित्री की कमाई से ही घर का खर्च चलता है। सावित्री इस घर का तो बोझा ढो ही रही है और वो जी-जान से जुटी हुई है इस टूटटे हुए घर को जोड़ने में, साथ ही में वो तलाश कर रही अपने किसी एक ऐसे साथी को, एक ऐसे हमदर्द को जिसके साथ शायद वो अपने मन की बात कह सके।
नाटक के शुरुआत में जब सावित्री ऑफिस से थकी-हारी आती है तो घर में घुसते ही उसकी महेंद्रनाथ से लड़ाई हो जाती है और महेंद्रनाथ गुस्से में घर छोड़ के चला जाता है। सावित्री घर की बाकी समस्याओं से उलझ जाती है और लगभग नाटक के अंत में जब महेंद्रनाथ का दोस्त जुनेजा उसके पास आता है महेंद्रनाथ की पैरवी करने के लिए तो सावित्री क्या कहती है! चलिए सुनते हैं सीमा पाहवा जी से–
एक बात पूछनी है आपसे। आदमी किस हालत में सचमुच में एक आदमी होता है? यूँ तो जो कोई भी आदमी की तरह चलता-फिरता है, बात करता है, वो आदमी होता है न…। पर असल में आदमी होने के लिए क्या ज़रूरी नहीं कि उसमें अपना एक माद्दा हो, अपनी एक शख्सियत हो–ये मैं इसलिए कह रही हूँ कि जब से मैंने उसे जाना है, मैंने हमेशा हर चीज़ के लिए उसे किसी-न-किसी का सहारा ढूँढ़ते पाया है, और ख़ासतौर से आपका। ‘ये करना चाहिए कि नहीं, हाँ, जुनेजा से पूछ लूँ। वहाँ जाना चाहिए या नहीं, जुनेजा से राय ले लूँ।’ कुछ छोटी-से-छोटी चीज़ खरीदनी है तो भी जुनेजा की पसंद से, कोई बड़े-से-बड़ा ख़तरा उठाना है तो भी जुनेजा की सलाह से, यहाँ तक की मुझसे ब्याह करने का फ़ैसला भी किस लिए किया? जुनेजा के हामी भरने से, वाह! और उस भरोसे का नतीजा? अपने आप पर कभी किसी चीज़ के लिए उसे भरोसा ही नहीं रहा, ज़िंदगी में हर चीज़ की कसौटी है–जुनेजा! जुनेजा सोचता है, जुनेजा चाहता है, जो जुनेजा करता है वो उसे भी सोचना है, उसे भी चाहना है, वो उसे भी करना है, क्यों? क्योंकि जुनेजा तो एक पूरा आदमी है अपने आप में, और वो खुद, वो खुद एक पूरे आदमी का आधा-चौथाई भी नहीं है।
मुझे असलियत की बात करने दीजिए–एक आदमी है, घर बसाता है, क्यों बसाता है? एक ज़रूरत पूरी करने के लिए। और कौन-सी ज़रूरत? अपने अंदर की किसी उस…क्या.. एक अधूरापन कह लीजिए उसे…उसको भर सकने की। इस तरह उसे अपने लिए…अपने में पूरा होना होता है। यानी, दूसरों को पूरा करते रहने में ज़िंदगी नहीं काटनी होती। पर आपके महेंद्र के लिए ज़िंदगी का मतलब रहा है…जैसे सिर्फ़ दूसरों के खाली खाने भरने की ही एक चीज है वो। जो कुछ वो दूसरों से चाहते हैं, उम्मीद करते हैं या जिस तरह वे सोचते हैं कि उसकी ज़िंदगी में उसका इस्तेमाल हो सकता है।
नहीं, इस काम के लिए कोई और नहीं जा सकता है?
हाँ, महेंद्रनाथ चला जाएगा। इस बोझ को कोई और नहीं ढो सकता, हाँ, महेंद्रनाथ ढो लेगा। प्रेस खुला है तो भी। प्रैक्ट्री शुरू हुई तो भी। खाली खाने भरने की जगह पर महेंद्रनाथ और खाने भर चुकने पर। महेंद्रनाथ कहीं नहीं…। अरे, महेंद्रनाथ अपना हिस्सा पहले ही ले चुका है, पहले ही खा चुका है, और उसका हिस्सा? उसका हिस्सा ये, ये…चौथे-तीसरे दरजे की घटिया चीज़ें। सिर्फ़ वो सोचता है कि उसका घर बन रहा है?
अच्छा, इसकी वजह मैं थी, यही कहना चाहते हैं न आप? और, वो मुझे खुश रखने के लिए ये लोहा, लकड़ी जल्दी-से-जल्दी घर में भर कर हर बार अपनी बर्बादी की नींव खोद लेता था। पर असल में उसकी बर्बादी की नींव क्या चीज़ खोद रही थी, क्या चीज़ और कौन आदमी, अपने दिल में तो आप जानते ही होंगे न!
अरे, मत कहिए मुझे महेंद्रनाथ की पत्नी। महेंद्र भी एक आदमी है, जिसके अपना घर-बार, पत्नी, बीवी। ये बात तो महेंद्र को अपना कहने वालों को शुरू से ही रास नहीं आई। महेंद्र ने ब्याह क्या कर लिया, आप लोगों की नज़र में आपका ही कुछ आपसे छीन लिया। महेंद्र अब पहले की तरह हँसता नहीं है, महेंद्र अब दोस्तों में बैठ कर पहले की तरह खिलता नहीं है! महेंद्र अब पहले वाला महेंद्र ही नहीं रह गया है। और महेंद्र ने जी जान से कोशिश की कि वह वही बना रहे किसी तरह। कोई ये न कह सके, जिससे कि वो पहले वाला महेंद्र नहीं रह गया है। और इसके लिए महेंद्र घर के अंदर दिन-रात छटपटाता था, दीवारों से सर पटकता था, बच्चों को पीटता था, बीवी के घुटने तोड़ता था। दोस्तों को अपना फुर्सत का वक्त काटने के लिए उसकी ज़रूरत है। महेंद्र के बगैर कोई पार्टी नहीं जमती, महेंद्र के बगैर किसी पिकनिक का मज़ा नहीं आता। दोस्तों के लिए जो फुर्सत काटने का वसीला है, वही महेंद्र का मुख्य काम है ज़िंदगी में। और उसका ही नहीं, उसके घर वालों का भी वही मुख्य काम होना चाहिए। अरे, तुम फलाँ जगह चलने से इनकार कैसे कर सकती हो, फलाँ से तुम ठीक से बात क्यों नहीं करती? तुम अपने को पढ़ी-लिखी कहती हो, तुम्हें तो लोगों के बीच उठने-बैठने की तमीज़ ही नहीं है! एक औरत को इस तरह चलना चाहिए, इस तरह बात करनी चाहिए, इस तरह मुस्कुराना चाहिए। क्यों तुम लोगों के बीच में हमेशा मेरी पोजिशन खराब करती हो? और वही महेंद्र जो दोस्तों के बीच दब्बू-सा बना हल्के-हल्के मुस्कुराता है न, घर आकर एक दरिंदा बन जाता है। पता नहीं, कब किसे नोच लेगा, कब किसे फाड़ खाएगा! आज वो ताव में अपनी कमीज़ को आग लगा लेता है। कल वो सावित्री की छाती पर बैठकर उसका सर जमीन से रगड़ने लगता है कि बोल, बोल, बोल, चलोगी उस तरह कि नहीं जैसे मैं चाहता हूँ? मानेगी वो सब कि नहीं जो मैं कहता हूँ? पर सावित्री फिर भी नहीं चलती, वो सब नहीं मानती। नफरत करती है उस आदमी से, उस आदमी के ऐसा होने से। एक पूरा आदमी चाहती है वो, एक पूरा आदमी अपने लिए…।
वो गला फाड़ कर ये बात कहती है। कभी इस आदमी को वो आदमी बना सकने की कोशिश करती है। कभी तड़प कर अपने आप को उससे अलग कर लेती है। अगर उसकी कोशिश से थोड़ा-सा भी फर्क पड़ने लगता है इस आदमी में, तो दोस्तों में इसका ग़म मनाया जाने लगता है। सावित्री तो महेंद्रनाथ के नाक में नकेल डाल के उसे अपने ढंग से चला रही है। सावित्री बेचारे महेंद्र की रीढ़ की हडडी तोड़ कर उसे किसी लायक नहीं रहने दे रही है! जैसे कि आदमी न हो कर बिना हाड़-मांस का एक पुतला है वो बेचारा महेंद्र।
बहुत ज़बर्दस्त पाठ किया सीमा पाहवा जी ने। फिर से उसी प्रोडक्शन की याद आ गई ‘आधे अधूरे’ की, जिन्होंने कई साल पहले दिल्ली में, श्रीराम सेंटर के बेसमेंट में किया था। उस दौर में उन्होंने कई नाटकों में प्रमुख भूमिका निभाई थीं तो जब उनसे पूछा कि उनके हिसाब से सावित्री का जो ये करेक्टर है, किरदार है ‘आधे अधूरे’, ये क्या महत्व रखता है उस नाटक में और हमारे समाज में, तो उनका जवाब था–
सावित्री इन सारे किरदारों से डेफिनेटली अलग हैं क्योंकि हर किरदार अपने आप में लिखा गया है। सावित्री एक बहुत ही, मुझे लगता है आज भी रेलिवेंट कैरेक्टर है, इसलिए क्योंकि हमारे मिडिल क्लास फैमली ज्यादा हैं, हिंदुस्तान में हम बहुत ज्यादा प्रतिशत मिडिल क्लास को बिलॉन्ग करते हैं। जहाँ पर एक औरत का बाहर निकल कर काम करना और उसे उस समाज की सारी चीज़ों से जूझना, जिसमें उसका अपना एक निजी स्ट्रगल भी होता है, जिसमें उसे अपने आप को स्टैबलिस भी करना है या जो भी…आज के अगर युग की बात करूँ, जहाँ पर औरत इसलिए लड़ रही है। लेकिन सावित्री इसलिए अलग हो जाती कि उस वक्त लड़ाई इसलिए नहीं थी कि उसे खुद को क्या बनना है। लड़ाई इसलिए थी कि उस पूरे अंक को ले कर उसे साथ में चलना है जिसमें उसका बेटा भी है, जिसमें उसकी बेटी भी है। एक छोटी बेटी भी है, एक पति भी है। और पति के बार-बार फेलियर होने से जो एक औरत के ऊपर…एक अधूरेपन का जो एहसास है उसकी ज़िंदगी में, क्योंकि एक ड्रीम होता है आपका, आप जब बचपन से बड़े होते हैं तो आप एक अपने लिए कल्पना करते हैं कि मेरा एक ऐसा घर होगा! वो कल्पना जब भी…जरा सी भी हिलती है, मुझे लगता है वो हमारे अंदर एक विवाद पैदा करती है और सावित्री उसका एक बहुत बड़ा एग्जाम्पल है जिसने ज़िंदगी भर एक भटकाव में निकाल दिया! कभी भी उसे एक पूरा संसार, एक पूरी दुनिया नहीं मिल पाई। सिर्फ़ पुरुष से मैं नहीं लूँगी कि सिर्फ़ पुरुष की तलाश थी उसे। उसे अपने घर की तलाश थी, जिसे घर कंप्लीट करने में जो उसके सहायक हो सकते थे, चाहे वो फाइनेंशियली होते है, इमोशनली होते हैं या फिजिकली भी होते हैं, लेकिन वो पुरुषों उसे एकमात्र नहीं मिल पाया…और इसीलिए शायद उसका भटकाव कंटिन्यू था, जिसमें अपने घर को बनाने की भी इच्छाएँ रख रही थीं वो। ऐसा नहीं था, नहीं तो शायद वो पहले ही घर छोड़ के भाग जाती, पर वो घर बनाना चाहती थीं और उन सारी चीज़ों से जूझती हुई एक औरत जो छटपटा रही है अपने फेलियर से, उस घर के फेलियर से, उस पति के फेलियर से, इस पूरी सोसाइटी के फेलियर से…।
तो वो बहुत ही स्ट्रांग कैरेक्टर था और जो मुझे करने में बहुत ज्यादा मज़ा आया था। वो अलग बात है कि मैं उस वक्त बहुत कम उमर में थी जब मैंने सावित्री किया था। लेकिन आज भी उन परिस्थितियों को देखती हूँ पीछे मुड़ के तो लगता है कि जैसे आज भी समाज में बहुत सारी चीज़ें तो नहीं बदली हैं। वो प्रॉब्लम तो आज भी एग्जिस्ट करती हैं…!
तो साथियों ये था हमारा आज का एकल पाठ। और इस कार्यक्रम की अगली कड़ी में हमलोग मिलेंगे एक बेहतरीन अभिनेता ज़ाकिर हुसैन जी से! और हाँ, मुझे आशा है कि आपलोग ‘नई धारा’ के यूट्यूब चैनल को देख रहे हैं और हमारे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से भी जुड़े हुए हैं। चलिए फिर मिलते हैं, नमस्कार!