Subscribe
Share
Share
Embed
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
तुमने इस तालाब में | दुष्यंत कुमार
तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं।
तुम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत,
तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं।
जाने कैसी उँगलियाँ हैं जाने क्या अंदाज़ हैं,
तुमने पत्तों को छुआ था जड़ हिलाकर फेंक दीं।
इस अहाते के अँधेरे में धुआँ-सा भर गया,
तुमने जलती लकड़ियाँ शायद बुझाकर फेंक दीं।