Pratidin Ek Kavita

अगर तुम मेरी जगह होते | निर्मला पुतुल 

ज़रा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता?
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस-भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाज़ार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को?
ज़रा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगों के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओ न कैसा लगता?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फ़ोटो खींचते, कैमरों के फ़ोकस
होंठो की पपड़ियों से बेख़बर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे, और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पाँवों में बिवाई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता ज़ोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हें...?
कैसा लगता तुम्हें...

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

अगर तुम मेरी जगह होते | निर्मला पुतुल

ज़रा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता?
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस-भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाज़ार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को?
ज़रा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगों के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओ न कैसा लगता?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फ़ोटो खींचते, कैमरों के फ़ोकस
होंठो की पपड़ियों से बेख़बर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे, और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पाँवों में बिवाई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता ज़ोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हें...?
कैसा लगता तुम्हें...