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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
बच्चा | रामदरश मिश्रा
हम बच्चे से खेलते हैं।
हम बच्चे की आँखों में झाँकते हैं।
वह हमारी आँखों में झाँकता है
हमारी आँखों में
उसकी आँखों की मासूम परछाइयाँ गिरती हैं
और उसकी आँखों में
हमारी आँखों के काँटेदार जंगल।
उसकी आँखें
धीरे-धीरे काँटों का जंगल बनती चली जाती हैं
और हम गर्व से कहते हैं-
बच्चा बड़ा हो रहा है।