Pratidin Ek Kavita

दिनचर्या | श्रीकांत वर्मा

एक अदृश्य टाइपराइटर पर साफ़, सुथरे
काग़ज़-सा
चढ़ता हुआ दिन,
तेज़ी से छपते मकान,
घर, मनुष्य
और पूँछ हिला गली से बाहर आता
कोई कुत्ता।
एक टाइपराइटर पृथ्वी पर
रोज़-रोज़
छापता है
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता।
कहीं पर एक पेड़
अकस्मात छप
करता है सारा दिन
स्याही में
न घुलने का तप।
कहीं पर एक स्त्री
अकस्मात उभर
करती है प्रार्थना
हे ईश्वर! हे ईश्वर!
ढले मत उमर।
बस के अड्डे पर
एक चाय की दुकान
दिन-भर बुदबुदाती है
‘टूटी हुई बेंच पर
बैठा है उल्लू का पट्ठा
पहलवान।’
जलाशय पर अचानक छप जाता है
मछुए का जाल
चरकट के कोठे से
उतरती है धूप
और चढ़ता है
दलाल।
एक चिड़चिड़ा बूढ़ा थका क्लर्क ऊबकर छपे हुए शहर को
छोड़ चला जाता है।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

दिनचर्या | श्रीकांत वर्मा

एक अदृश्य टाइपराइटर पर साफ़, सुथरे
काग़ज़-सा
चढ़ता हुआ दिन,
तेज़ी से छपते मकान,
घर, मनुष्य
और पूँछ हिला गली से बाहर आता
कोई कुत्ता।
एक टाइपराइटर पृथ्वी पर
रोज़-रोज़
छापता है
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता।
कहीं पर एक पेड़
अकस्मात छप
करता है सारा दिन
स्याही में
न घुलने का तप।
कहीं पर एक स्त्री
अकस्मात उभर
करती है प्रार्थना
हे ईश्वर! हे ईश्वर!
ढले मत उमर।
बस के अड्डे पर
एक चाय की दुकान
दिन-भर बुदबुदाती है
‘टूटी हुई बेंच पर
बैठा है उल्लू का पट्ठा
पहलवान।’
जलाशय पर अचानक छप जाता है
मछुए का जाल
चरकट के कोठे से
उतरती है धूप
और चढ़ता है
दलाल।
एक चिड़चिड़ा बूढ़ा थका क्लर्क ऊबकर छपे हुए शहर को
छोड़ चला जाता है।