कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
अपरिभाषित | अजेय जुगरान
बारह - तेरह के होते - होते कुछ बच्चे
खो जाते हैं अपनी परिभाषा खोजते - खोजते
किसी का मन अपने तन से नहीं मिलता
किसी का तन बचपन के अपने दोस्तों से।
ये किशोर कट से जाते हैं आसपास सबसे
और अपनी परिभाषा खोजने की ऊहापोह में
अपने तन पर लिखने लगते हैं
सुई काँटों टूटे शीशों से
एक घनघोर तनाव - अपवाद की भाषा
जो आस्तीनों - मफ़लरों के नीचे से यदाकदा झलक
कभी - कहीं उनकी माँओं को आ ही जाती है नज़र।
तब उनसे बंद कमरों में शुरू होती है ऐसी बातचीत
जिसे बाहर दरवाज़े से कान लगा सुन
सुन्न हो जाते हैं कई सहमे हुए बाप
और फिर वो रोने - कोसने लगते हैं
अपने आप, अपनी क़िसमत, और परिभाषाओं को।
ऐसे में अभिभावक अकसर भूल जाते हैं
प्रकृति में शरीर रूप - रचनाओं की अनेकता
और ठहराने लगते हैं ज़िम्मेदार एक दूसरे को।
अफसोस इस सारी कटु क़वायद के केंद्र में
“लोग क्या कहेंगे” से डरा अस्वीकार होता है
कोई अपरिभाष्य किशोर नहीं।
इस कारण सुलझती नहीं ये पहेली
बस असुलझी सुलगती रहती है
धुएँ के एक काले बादल नीचे
और अफसोस फिर मिलतीं हैं
नस कटी, रेल के पहियों तले और पंखों पर लटकीं
लाशें कई अपरिभाषित - अर्धनारीश्वरीय संतानों की
जो सरल स्वीकार से जी सकतीं थीं होकर परिभाषित।