Pratidin Ek Kavita

अम्मा बचपन को लौट रही है | अजेय जुगरान 

उठने को सहारा चाहे
अम्मा बचपन को लौट रही है।

चलने को सहारा चाहे
अम्मा छुटपन को लौट रही है।

बैठने को सहारा चाहे
अम्मा शिशुपन को लौट रही है।

ज़िद्द से न किनारा पाए
अम्मा बालपन को लौट रही है।

खाते खाना गिराए
अम्मा बचपन को लौट रही है।

सोने को टी वी चलाए
अम्मा छुटपन को लौट रही है।

नितकर्म को टालती जाए
अम्मा शिशुपन को लौट रही है।

बातों को दोहराती जाए
अम्मा बालपन को लौट रही है।

दिन में सो रातों को जगाए
अम्मा बचपन को लौट रही है।

अम्मा से बनी दादी - परनानी के साए
अवकाश प्राप्त कर हम घर लौट रहे हैं
और अम्मा, अम्मा बचपन को लौट रही है।

अभिभावक बने उसके ही प्रेम पलाए
आशीर्वाद को उसके हम घर लौट रहे हैं
और अम्मा, अम्मा बचपन को लौट रही है।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

उठने को सहारा चाहे
अम्मा बचपन को लौट रही है।

चलने को सहारा चाहे
अम्मा छुटपन को लौट रही है।

बैठने को सहारा चाहे
अम्मा शिशुपन को लौट रही है।

ज़िद्द से न किनारा पाए
अम्मा बालपन को लौट रही है।

खाते खाना गिराए
अम्मा बचपन को लौट रही है।

सोने को टी वी चलाए
अम्मा छुटपन को लौट रही है।

नितकर्म को टालती जाए
अम्मा शिशुपन को लौट रही है।

बातों को दोहराती जाए
अम्मा बालपन को लौट रही है।

दिन में सो रातों को जगाए
अम्मा बचपन को लौट रही है।

अम्मा से बनी दादी - परनानी के साए
अवकाश प्राप्त कर हम घर लौट रहे हैं
और अम्मा, अम्मा बचपन को लौट रही है।

अभिभावक बने उसके ही प्रेम पलाए
आशीर्वाद को उसके हम घर लौट रहे हैं
और अम्मा, अम्मा बचपन को लौट रही है।