Pratidin Ek Kavita

दिन डूबा | रामदरश मिश्रा 

दिन डूबा अब घर जाएँगे
कैसा आया समय कि साँझे
होने लगे बन्द दरवाज़े 
देर हुई तो घर वाले भी
हमें देखकर डर जाएँगे
आँखें आँखों से छिपती हैं 
नज़रों में छुरियाँ दिपती हैं
हँसी देख कर हँसी सहमती
क्या सब गीत बिखर जाएँगे? 

गली-गली औ' कूचे-कूचे 
भटक रहा पर राह ने पूछे
काँप गया वह, किसने पूछा-
 “सुनिए आप किधर जाएँगे?"

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

दिन डूबा | रामदरश मिश्रा

दिन डूबा अब घर जाएँगे
कैसा आया समय कि साँझे
होने लगे बन्द दरवाज़े
देर हुई तो घर वाले भी
हमें देखकर डर जाएँगे
आँखें आँखों से छिपती हैं
नज़रों में छुरियाँ दिपती हैं
हँसी देख कर हँसी सहमती
क्या सब गीत बिखर जाएँगे?

गली-गली औ' कूचे-कूचे
भटक रहा पर राह ने पूछे
काँप गया वह, किसने पूछा-
“सुनिए आप किधर जाएँगे?"