Pratidin Ek Kavita

खेजड़ी-सी उगी हो | नंदकिशोर आचार्य 

खेजड़ी-सी उगी हो मुझ में
हरियल खेजड़ी सी तुम
सूने, रेतीले विस्तार में :
तुम्हीं में से फूट आया हूँ
ताज़ी, घनी पत्तियों-सा।
कभी पतझड़ की हवाएँ
झरा देंगी मुझे
जला देंगी कभी ये सुखे की आहें!
तब भी तुम रहोगी
मुझे भजती हुई अपने में
सींचता रहूँगा मैं तुम्हें
अपने गहनतम जल से।
जब तलक तुम हो
मेरे खिलते रहने की
सभी सम्भावनाएँ हैं।

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

खेजड़ी-सी उगी हो | नंदकिशोर आचार्य

खेजड़ी-सी उगी हो मुझ में
हरियल खेजड़ी सी तुम
सूने, रेतीले विस्तार में :
तुम्हीं में से फूट आया हूँ
ताज़ी, घनी पत्तियों-सा।
कभी पतझड़ की हवाएँ
झरा देंगी मुझे
जला देंगी कभी ये सुखे की आहें!
तब भी तुम रहोगी
मुझे भजती हुई अपने में
सींचता रहूँगा मैं तुम्हें
अपने गहनतम जल से।
जब तलक तुम हो
मेरे खिलते रहने की
सभी सम्भावनाएँ हैं।