Pratidin Ek Kavita

एक माँ की बेबसी | कुँवर नारायण 

न जाने किस अदृश्य पड़ोस से 
निकल कर आता था वह 
खेलने हमारे साथ— 
रतन, जो बोल नहीं सकता था 
खेलता था हमारे साथ 
एक टूटे खिलौने की तरह 
देखने में हम बच्चों की ही तरह 
था वह भी एक बच्चा। 
लेकिन हम बच्चों के लिए अजूबा था 
क्योंकि हमसे भिन्न था। 
थोड़ा घबराते भी थे हम उससे 
क्योंकि समझ नहीं पाते थे 
उसकी घबराहटों को, 
न इशारों में कही उसकी बातों को, 
न उसकी भयभीत आँखों में 
हर समय दिखती 
उसके अंदर की छटपटाहटों को। 
जितनी देर वह रहता 
पास बैठी उसकी माँ 
निहारती रहती उसका खेलना। 
अब जैसे-जैसे 
कुछ बेहतर समझने लगा हूँ 
उनकी भाषा जो बोल नहीं पाते हैं 
याद आती 
रतन से अधिक 
उसकी माँ की आँखों में 
झलकती उसकी बेबसी। 

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

एक माँ की बेबसी | कुँवर नारायण

न जाने किस अदृश्य पड़ोस से
निकल कर आता था वह
खेलने हमारे साथ—
रतन, जो बोल नहीं सकता था
खेलता था हमारे साथ
एक टूटे खिलौने की तरह
देखने में हम बच्चों की ही तरह
था वह भी एक बच्चा।
लेकिन हम बच्चों के लिए अजूबा था
क्योंकि हमसे भिन्न था।
थोड़ा घबराते भी थे हम उससे
क्योंकि समझ नहीं पाते थे
उसकी घबराहटों को,
न इशारों में कही उसकी बातों को,
न उसकी भयभीत आँखों में
हर समय दिखती
उसके अंदर की छटपटाहटों को।
जितनी देर वह रहता
पास बैठी उसकी माँ
निहारती रहती उसका खेलना।
अब जैसे-जैसे
कुछ बेहतर समझने लगा हूँ
उनकी भाषा जो बोल नहीं पाते हैं
याद आती
रतन से अधिक
उसकी माँ की आँखों में
झलकती उसकी बेबसी।