कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
ढहाई | प्रशांत पुरोहित
उसने पहले मेरे घर के
दरवाज़े को तोड़ा,
छज्जे को पटका फिर,
बालकनी को टहोका,
अब दीवारों का नम्बर आया,
तो उन्हें भी गिराया,
मेरे छोटे मगर उत्तुंग घर की
ज़मीन चौरस की,
मेरी बच्ची किसी
बची-खुची मेहराब के नीचे
सो न जाए कहीं,
हरिक छोटे छज्जे को अपने
लोहे के हाथ से सहलाया,
मेरे आँगन को पथराया
उसका लोहा ग़ुस्से से गर्म था,
लाल था,
उसे लगा मेरे विरोध की आवाज़ में
कोई भारी बवाल था
वो जब उठी थी तो अकेली नहीं थी,
अब घर बैठ गया है तो भी खड़ी है -
मेरी आवाज़।
साहूकार की योजना है -
ऐसी सब आवाज़ों को
घर ढहा अकेला करने की
मगर अब सब बेघर आवाज़ें
समवेत उठती हैं,
घर गिरा मगर
स्वर न गिरे
ये आवाज़ें अल्ट्रासोनिक हैं,
जो सुनाई नहीं पड़तीं मगर
दिखती हैं,
दिखाती हैं -
कभी आपके गुर्दे में पड़ी
पथरी को तोड़कर,
कभी आपके अंदर बनी, पली
बच्ची को आँवल से जोड़कर
ये अपने घर के मलबे पर
उकड़ूँ बैठीं
लोहा-ढलीं आवाज़ें
तोड़ेंगी -
उन सब पथरियों को
जिन्हें व्यवस्था ने चिना,
जिनसे ये खिड़की के बिना,
सिर्फ़ अंदर खुलते दरवाज़ों वाले
भवन बने हैं,
ये कमज़ोर शरीरों की
भिंची-उठी मुट्ठियों के नीचे
पपड़ाए होठों,
सूखे गलों से निकलतीं
अलग-अलग स्वरों में
एक ही बात कहतीं,
एक ही आवृत्ति की तरंगें निकालतीं,
एक ही दिशा में बहतीं
आवाज़ें -
तोड़ डालेंगी चारों सुनहरे पाये
उस मख़मली सिंहासन के,
जो अपने आप को
प्रजातंत्र कहता है।