कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
सागर से मिलकर जैसे / भवानीप्रसाद मिश्र
सागर से मिलकर जैसे
नदी खारी हो जाती है
तबीयत वैसे ही
भारी हो जाती है मेरी
सम्पन्नों से मिलकर
व्यक्ति से मिलने का
अनुभव नहीं होता
ऐसा नहीं लगता
धारा से धारा जुड़ी है
एक सुगंध
दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है
तो कहना चाहिए
सम्पन्न व्यक्ति
व्यक्ति नहीं है
वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति
नहीं है
कई बातों का जमाव है
सही किसी भी
अस्तित्व का अभाव है
मैं उससे मिलकर
अस्तित्वहीन हो जाता हूँ
दीनता मेरी
बनावट का कोई तत्व नहीं है
फिर भी धनाढ्य से मिलकर
मैं दीन हो जाता हूँ