कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
राख | अरुण कमल
शायद यह रुक जाता
सही साइत पर बोला गया शब्द
सही वक्त पर कन्धे पर रखा हाथ
सही समय किसी मोड़ पर इंतज़ार
शायद रुक जाती मौत
ओफ! बार बार लगता है मैंने जैसे उसे ठीक से पकड़ा नहीं
गिरा वह छूट कर मेरी गोद से
किधर था मेरा ध्यान मैं कहाँ था
अचानक आता है अँधेरा
अचानक घास में फतिंगों की हलचल
अचानक कोई फूल झड़ता है
और पकने लगता है फल
मैंने वे सारे क्षण खो दिये
वे अन्तिम साँस के क्षण
अपनी साँस उसके होठों में भरने के क्षण
भरी थीं सारी टंकियाँ जब वह एक घूँट पानी को
तड़पा इतनी हवा थी चारों ओर
उस समय क्या कर रहा था मैं
याद करो तुम क्या कर रहे थे उस वक्त
मुझे सोना नहीं था नहीं
मुझे अपनी पलकें अंकुशों से खींचे रखनी थीं
मैं चीख तो सकता था मैं रो तो सकता था ज़ोर से
मेरे तलवे काँपते तो भूकम्प से
जिसमें इतनी आग थी
उसकी इतनी कम राख!