कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
ओंठ | अशोक वाजपेयी
तराशने में लगा होगा एक जन्मांतर
पर अभी-अभी उगी पत्तियों की तरह ताज़े हैं।
उन पर आयु की झीनी ओस हमेशा नम है
उसी रास्ते आती है हँसी
मुस्कुराहट
वहीं खिलते हैं शब्द बिना कविता बने
वहीं पर छाप खिलती है दूसरे ओठों की
वह गुनगुनाती है
समय की अँधेरी कंदरा में बैठा
कालदेवता सुनता है
वह हंसती है।
बर्फ़ में ढँकी वनराशि सुगबुगाती है
वह चूमती है।
सदियों की विजड़ित प्राचीनता पिघलती है
रति में
प्रार्थना में
स्वप्न में
उसके ओंठ बुदबुदाते हैं....