Pratidin Ek Kavita

झूठ की नदी | विजय बहादुर सिंह

झूठ की नदी में
डगमग हैं 
सच के पाँव

चेहरे 
पीले पड़ते जा रहे हैं
मुसाफ़िरों के

मुस्कुरा रहे हैं खेवैये
मार रहे हैं डींग

भरोसा है 
उन्हें फिर भी
सम्हल जाएगी नाव

मुसाफ़िर 
बच जाएँगें
भँवर थम जाएगी

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

झूठ की नदी | विजय बहादुर सिंह

झूठ की नदी में
डगमग हैं
सच के पाँव

चेहरे
पीले पड़ते जा रहे हैं
मुसाफ़िरों के

मुस्कुरा रहे हैं खेवैये
मार रहे हैं डींग

भरोसा है
उन्हें फिर भी
सम्हल जाएगी नाव

मुसाफ़िर
बच जाएँगें
भँवर थम जाएगी