कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
रोक सको तो रोको | पूनम शुक्ला
उछलेंगी ये लहरें
अपनी राह बना लेंगी
ये बल खाती सरिताएँ
अपनी इच्छाएँ पा लेंगी
रोको चाहे जितना भी
ये झरने शोर मचाएँगे
रोड़े कितने भी डालो
कूद के ये आ जाएँगे
चाहे ऊँची चट्टानें हों
विहंगों का वृंद बसेगा
सूखती धरा भले हो
पुष्पों का झुंड हँसेगा
हो रात घनेरी जितनी
रोशनी का पुंज उगेगा
रोक सको तो रोको
यम भी विस्मित चल देगा
डालो चाहे जितने विघ्न
चाहे जितने करो प्रयत्न
रोक नहीं सकते तुम हमको
पाने से जीवन के कुछ रत्न ।