Pratidin Ek Kavita

देहरी | गीतू गर्ग 

बुढ़ा जाती है 
मायके की
 ढ्योडियॉं
अशक्त होती 
मॉं के साथ..
अकेलेपन को
सीने की कसमसाहट में 
भरने की आतुरता 
निढाल आशंकाओं में 
झूलती उतराती..

थाली में परसी 
एक तरकारी और दाल
देती है गवाही 
दीवारों पर चस्पाँ 
कैफ़ियत की
अब इनकी उम्र को
लच्छेदार भोजन नहीं पचता 
मन को चलाना 
इस उमर में नहीं सजता 

होंठ भीतर ही भीतर 
फड़फड़ाते हैं 
बिटिया को खीर पसंद है
और सबसे बाद में 
करारा सा पराठाँ
वो प्यारी मनुहार बाबुल की
खो गई कब की
समय ने किस किस को 
कहॉं कहॉं बाँटा..

मॉं !
तू इतना भी चुप मत रह
न होने दें ये सन्नाटे 
खुद पर हावी
उमर ही बढ़ी है
पर जीना है 
अभी भी बाक़ी 
इस घर की बगिया को
तूने ही सँवारा है
हर चप्पे पर सॉंस लेता
स्पर्श तुम्हारा है 

बरसों पहले छोड़ी 
देहरी अब भी पहचानती है
बूढ़ी हो गई तो क्या 
पदचापों को 
खूब जानती है 
माना कि ओहदों की 
पारियाँ बदल गई है 
रिश्तों की प्रमुखता 
हाशियों पर फिसल गई है 
पर जाने से पहले यों 
जीना ना छोड़ना 
अधिकार की डोरी 
न हाथों से छोड़ना..

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

देहरी | गीतू गर्ग

बुढ़ा जाती है
मायके की
ढ्योडियॉं
अशक्त होती
मॉं के साथ..
अकेलेपन को
सीने की कसमसाहट में
भरने की आतुरता
निढाल आशंकाओं में
झूलती उतराती..

थाली में परसी
एक तरकारी और दाल
देती है गवाही
दीवारों पर चस्पाँ
कैफ़ियत की
अब इनकी उम्र को
लच्छेदार भोजन नहीं पचता
मन को चलाना
इस उमर में नहीं सजता

होंठ भीतर ही भीतर
फड़फड़ाते हैं
बिटिया को खीर पसंद है
और सबसे बाद में
करारा सा पराठाँ
वो प्यारी मनुहार बाबुल की
खो गई कब की
समय ने किस किस को
कहॉं कहॉं बाँटा..

मॉं !
तू इतना भी चुप मत रह
न होने दें ये सन्नाटे
खुद पर हावी
उमर ही बढ़ी है
पर जीना है
अभी भी बाक़ी
इस घर की बगिया को
तूने ही सँवारा है
हर चप्पे पर सॉंस लेता
स्पर्श तुम्हारा है

बरसों पहले छोड़ी
देहरी अब भी पहचानती है
बूढ़ी हो गई तो क्या
पदचापों को
खूब जानती है
माना कि ओहदों की
पारियाँ बदल गई है
रिश्तों की प्रमुखता
हाशियों पर फिसल गई है
पर जाने से पहले यों
जीना ना छोड़ना
अधिकार की डोरी
न हाथों से छोड़ना..