कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
इतिहास | नरेश सक्सेना
बरत पर फेंक दी गई चीज़ें,
ख़ाली डिब्बे, शीशियाँ और रैपर
ज़्यादातर तो बीन ले जाते हैं बच्चे,
बाकी बची, शायद कुछ देर रहती हो शोकमग्न
लेकिन देखते-देखते
आपस में घुलने मिलने लगती हैं।
मनाती हुई मुक्ति का समारोह।
बारिश और ओस और धूप और धूल में मगन
उड़ने लगती हैं उनकी इबारतें
मिटने लगते हैं मूल्य और निर्माण की तिथियाँ
छपी हुई चेतावनियाँ होने लगतीं अदृश्य
कंपनी की मॉडल के स्तनों पर लगने लगती है फफूंद
चेहरे पर भिनकती हैं मक्खियाँ
एक दिन उनके ढेर पर उगता है
एक पौधा-पौधे में फूल
फूलों में उन सबका सौंद्य
और
ख़ुश्बू में उनका इतिहास।