कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
तय तो यही हुआ था - शरद बिलाैरे
सबसे पहले बायाँ हाथ कटा
फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए
टुकड़ों में कटते चले गए
ख़ून दर्द के धक्के खा-खा कर
नशों से बाहर निकल आया था
तय तो यही हुआ था कि मैं
कबूतर की तौल के बराबर
अपने शरीर का मांस काट कर
बाज़ को सौंप दूँ
और वह कबूतर को छोड़ दे
सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था
शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराज़ू पर था
और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था
हार कर मैं
समूचा ही तराज़ू पर चढ़ गया
आसमान से फूल नहीं बरसे
कबूतर ने कोई दूसरा रूप नहीं लिया
और मैंने देखा
बाज़ की दाढ़ में
आदमी का ख़ून लग चुका है।