Pratidin Ek Kavita

दही जमाने को, थोड़ा-सा जामन देना | यश मालवीय

मन अनमन है, पल भर को 
अपना मन देना 
दही जमाने को, थोड़ा-सा 
जामन देना 
सिर्फ़ तुम्हारे छू लेने से 
चाय, चाय हो जाती 
धूप छलकती दूध सरीखी 
सुबह गाय हो जाती 
उमस बढ़ी है, अगर हो सके 
सावन देना 
दही जमाने को, थोड़ा-सा 
जामन देना 
नहीं बाँटते इस देहरी 
उस देहरी बैना 
तोता भी उदास, मन मारे 
बैठी मैना 
घर से ग़ायब होता जाता, 
आँगन देना 
दही जमाने को, थोड़ा-सा 
जामन देना
अलग-अलग रहने की 
ये कैसी मजबूरी 
बहुत दिन हुए, आओ चलो 
कुतर लें दूरी 
आ जाना कुछ पास, 
ज़रा-सा जीवन देना। 
दही जमाने को, थोड़ा-सा 
जामन देना 

What is Pratidin Ek Kavita?

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।

दही जमाने को, थोड़ा-सा जामन देना | यश मालवीय

मन अनमन है, पल भर को
अपना मन देना
दही जमाने को, थोड़ा-सा
जामन देना
सिर्फ़ तुम्हारे छू लेने से
चाय, चाय हो जाती
धूप छलकती दूध सरीखी
सुबह गाय हो जाती
उमस बढ़ी है, अगर हो सके
सावन देना
दही जमाने को, थोड़ा-सा
जामन देना
नहीं बाँटते इस देहरी
उस देहरी बैना
तोता भी उदास, मन मारे
बैठी मैना
घर से ग़ायब होता जाता,
आँगन देना
दही जमाने को, थोड़ा-सा
जामन देना
अलग-अलग रहने की
ये कैसी मजबूरी
बहुत दिन हुए, आओ चलो
कुतर लें दूरी
आ जाना कुछ पास,
ज़रा-सा जीवन देना।
दही जमाने को, थोड़ा-सा
जामन देना