कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
पतंग | आरती जैन
हम कमरों की कैद से छूट
छत पर पनाह लेते हैं
जहाँ आज आसमां पर
दो नन्हे धब्बे एक दूसरे संग नाच रहे हैं
"पतंग? यह पतंग का मौसम तो नहीं"
नीचे एम्बुलैंस चीरती हैं सड़कों को
लाल आँखें लिए, विलाप करती
अपनी कर्कश थकी आवाज़ में
दामन फैलाये
निरुत्तर सवाल पूछती
ट्रेन में से झांकते हैं बुतों के चेहरे
जिनके होठ नहीं पर आंखें बहुत सी हैं
जो एकटक घूरती
खोज रही हैं कि दिख जाए कुछ
खौफ और हिम्मत के धुंधलके में
"ऐसा धुआं तो नवंबर में होता है"
"हाँ, जब पराली जलती है"
सन्नाटा जानता है कि ये पराली नहीं
धुएं की एक लकीर
आसमान को घोंपने निकल पड़ी है
जहां दो पतंगें अब भी
शरीर बच्चों सी
एक दूसरे को चिढ़ा-चिढ़ा कर
खिलखिला रही हैं,
"मौसम तो ये पतंग का भी नहीं"